यह कविता 2016 में बदलते वक्त में छोटे बच्चों को समय न मिल पाने के कारण उनके हालातों को देखकर रची गई थी हो सकता है जब आप पढ़ रहे हों हालात कुछ और हों या इससे बेहतर या इससे बद्दतर हों फिर भी शब्दों से कोई आंतरिक घाव लगे तो इसे केवल जागृति संदेश समझकर माफ कर दीजिएगा यह किसी व्यक्ति या वर्ग विशेष पर नहीं है धन्यवाद
मैं नहीं हूँ औरत का विरोधी बहना
पर चाहता हूँ समाज से कुछ कहना
आज की औरत अपने फर्ज से मुख मोड़ गयी
नौकरी के चक्कर में बाकि चिंता छोड़ गयी
उसको बहन कैसे याद दिलाएं
पैसे से बड़े फर्ज का मोल
कैसे उसको आईना दिखाएँ
फर्ज होते हैं अनमोल
घर का गहना औरत कहलाती
तभी वो गृहणी कहि जाती
आदमियों ने भी लालच में उनको
पैसे के जाल में फैंक दिया
बन गयी चक्की पैसे की
बच्चों को अग्नि में सेक दिया
सोचना दोनों पक्षों को गहरायी से
आघात ना लेना मेरी लिखाई से
कहना ये सिर्फ चुनिंदा औरतों के बारे में
खुद में बहन मत ले लेना
हो भूल मेरे शब्दों से अगर
छोटा भाई कहकर माफ़ी दे देना
औरत को करता हूँ सलाम उनको
फर्ज की दिल से कदर है जिनको
नफरत है हर उस मर्द से
जिसके लिए वो दूर होती हैं फर्ज से
आने वाली पीढ़ी को बचाना है
उनको माँ से संस्कार दिलाना है
वो तभी सम्भव हो पायेगा
जब माँ के पास समय आ पायेगा
अभी हूँ लफ्जों का कच्चा खिलाड़ी
खेलनी है रस की लम्बी पारी
written -04 /05 /2016
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1 Comments
आपने काफी ज्ञान भरा लेख लिखा है, आप इसी तरह हमारे साथ अपने ज्ञान को शेयर करते रहिये, थैंक्स
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